Mirza Ghalib Sher: महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब को कौन नहीं जानता, अपने इंतकाल के 150 वर्ष बाद, आज भी ग़ालिब भारत के सबसे प्रसिद्ध शायर हैं, ग़ालिब शायरी आज भी बच्चे_बच्चे की जुबान पर है,
वेसे तो मिर्ज़ा ग़ालिब आखिरी मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फर के दरबारी शायर थे उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा उत्तर प्रदेश में हुआ था। उन्होंने सिर्फ 11 साल की उम्र में शायरी लिखने की शुरुआत कर दी थी।
वैसे तो ग़ालिब ने प्यार, इश्क़ और मोहब्बत व जिंदगानी के हर मरहले पर शेर और ग़ज़लें कही हैं, पर इश्क़ पर जो हुनर उन्हें हांसिल था वो शायद कहीं और नहीं मिलता, तो पेश है इश्क़ पर ग़ालिब की शायरी अगर आपको Ghalib Shayari पसंद आये तो इनको अपने दोस्तों के साथ जरूर साझा करे।
Mirza Ghalib Sher
#बेवजह नहीं रोता कोई “इश्क़” में ग़ालिब
जिसे ख़ुद से #बढकर चाहो वो रुलाता ज़रूर है।
तुम से ‘बेजा’ है मुझे अपनी #तबाही का गिला
उसमें कुछ #शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था
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Mirza Ghalib Sher |
*दिल-ए-नादाँ* तुझे हुआ क्या है।
आख़िर इस दर्द की #दवा क्या है।।
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फिर कुछ इक “दिल” को बे-क़रारी है
सीना #जुया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है
फिर हुए हैं #गवाह-ए-इश्क़ तलब
“अश्क-बारी” का हुक्म-जारी है
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं #‘ग़ालिब’
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है
तोड़ा कुछ_इस अदा से “ताल्लुक” उसने ग़ालिब,
कि हम सारी “उम्र” अपना क़ुसूर ढूँढ़ते रहे।
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Ghalib Sher |
बे-वजह नहीं रोता ‘इश्क़’ में कोई #ग़ालिब
जिसे_खुद से बढ़ कर चाहो वो #रूलाता ज़रूर है
न था कुछ तो ‘ख़ुदा’ था कुछ न होता तो #ख़ुदा होता
डुबोया_मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
ज़रा कर जोर_सीने पर की तीर -ऐ-पुरसितम् निकले जो
वो निकले तो ‘दिल’ निकले , जो #दिल निकले तो दम निकले
ता फिर न #इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गये आये जो “ख्वाब” में।
ये न थी हमारी #क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और #जीते रहते यही “इंतिज़ार” होता
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Ghalib Shayari |
इश्क़ ने #ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी ‘आदमी’ थे काम के
बुलबुल के “कारोबार” पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
कहते हैं जिस को इश्क़ #ख़लल है दिमाग़ का
#ख़ंदा-हा-ए-गुल फूलों की हंसी
हजारों “ख्वाहिशें” ऐसी कि हर ‘ख़्वाहिश’ पे दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान_लेकिन फिर भी कम निकले।।
निकलना #ख़ुल्द से आदम का सुनते आए थे लेकिन।
बहुत निकले मेरे ‘अरमान’ लेकिन फिर भी कम निकले।।
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के #क़ाबिल नहीं रहा
जिस #दिल पे नाज़ था मुझे वो #दिल नहीं रहा
इशरत-ए-क़तरा है “दरिया” में फ़ना हो जाना,
दर्द का हद से #गुज़रना है दवा हो जाना।
दर्द जब #दिल में हो तो दवा कीजिए।
दिल ही जब #दर्द हो तो_क्या कीजिए।।
हुई “ताख़ीर” तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
आप आते थे मगर कोई #अनागीर भी था
#बारह देखीं हैं उन की रंजिशें ,
पर कुछ अब के #सरगिरानी और है
देके खत_मुँह देखता है नामाबर ,
कुछ तो #पैगाम -ऐ -ज़बानी और है
पियूँ “शराब” अगर ख़ुम भी ‘देख’ लूँ दो चार।
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।।
इस “सादगी” पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में #तलवार भी नहीं
उन के “देखे” से जो आ जाती है ‘चेहरे’ पर रौनक
वो समझते हैं कि #बीमार का हाल अच्छा है
कोई #उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत_नजर नहीं आती
मौत का एक दिन #मुअय्यन है
नींद क्यूं_रात भर नहीं आती
आगे आती थी #हाल-ए-दिल पे हंसी
अब किसी_बात पर नहीं आती।
उन के #देखे से जो आ जाती है “चेहरे” पर रौनक
वो समझते हैं कि #बीमार का हाल अच्छा है
Ghalib Shayari
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Mirza Ghalib Ke Sher |
उन के #देखे से जो आ जाती है ‘मुँह’ पर रौनक़।
वो समझते हैं कि “बीमार” का हाल अच्छा है।।
#बारह देखीं हैं उन की रंजिशें ,
पर कुछ अब के #सरगिरानी और है
देके खत_मुँह देखता है नामाबर ,
कुछ तो #पैगाम -ऐ -ज़बानी और है
पियूँ “शराब” अगर ख़ुम भी ‘देख’ लूँ दो चार।
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।।
इस “सादगी” पे कौन न मर जाए ऐ खुदा
लड़ते हैं और हाथ में #तलवार भी नहीं
उन के “देखे” से जो आ जाती है ‘चेहरे’ पर रौनक
वो समझते हैं कि #बीमार का हाल अच्छा है
उन के #देखे से जो आ जाती है “चेहरे” पर रौनक
वो समझते हैं कि #बीमार का हाल अच्छा है
#मोहब्बत में नहीं है फ़र्क “जीने” और मरने का,
उसी को देखकर_जीते हैं जिस ‘क़ाफ़िर’ पे दम निकले।
है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं
वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था
#चिपक रहा है बदन पर लहू से ‘पैराहन’।
हमारी ज़ेब को अब #हाजत-ए-रफ़ू क्या है।।
#आशिक़ी सब्र तलब और “तमन्ना” बेताब,
दिल का क्या #रंग करूँ खून-ए-जिगर होने तक।
#अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के ‘क़ाबिल’ नहीं रहा
जिस “दिल” पे नाज़ था मुझे वो “दिल” नहीं रहा
#आशिक़ हूँ पर माशूक़ #फ़रेबी है मेरा काम,
मजनू को बुरा कहती है ‘लैला’ मेरे आगे।
वो चीज़_जिसके लिये हमको हो #बहिश्त अज़ीज़।
सिवाए #बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है।।
रगों में “दौड़ते” फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका_तो फिर लहू क्या है
ये न थी हमारी #क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता।
‘अगर’ और जीते रहते यही #इंतिज़ार होता।।
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Ghalib Ke Sher |
वो आए ‘घर’ में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं!
कभी हम उमको, कभी अपने ‘घर’ को देखते हैं
हम थे #मरने को खड़े पास न ‘आया’ न सही
आख़िर उस शोख़ के “तरकश” में कोई तीर भी था
उल्फ़त_पैदा हुई है, कहते हैं, हर दर्द की #दवा
यूं हो हो तो #चेहरा-ऐ -गम उल्फ़त ही क्यों न हो
मुझे_कहती है तेरे #साथ रहूंगी सदा
ग़ालिब बहुत_प्यार करती है मुझसे #उदासी मेरी
#इश्क़ पर जोर नहीं_है ये वो आतिश #ग़ालिब,
कि ‘लगाये’ न लगे और #बुझाये न बुझे
– मिर्ज़ा ग़ालिब
#ग़ालिब बुरा न मान जो “वाइज़” बुरा कहे,
ऐसा भी कोई है कि सब #अच्छा कहें जिसे?
मै #नादान था जो वफ़ा को तलाश करता रहा_ग़ालिब
यह न सोचा के एक_दिन अपनी सांस भी ‘बेवफा’ हो जाएगी
हज़ारों #ख़्वाहिशें ऐसी कि हर “ख़्वाहिश” पर दम निकले
बहुत निकले मेरे #अरमान लेकिन फिर भी_कम निकले
मंजिल_मिलेगी बहक के ही सही
गुमराह तो वो है जो “घर” से निकलते ही नहीं
आया है मुझे “बेकशी” इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किस का ‘घर’ जलाएगा सैलाब_भला मेरे बाद
हैं और भी “दुनिया” में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि ग़ालिब का है #अंदाज़-ए-बयाँ और।
हमको_मालूम है जन्नत की #हकीकत लेकिन,
दिल के बहलाने को ग़ालिब_ख़याल अच्छा है।
#मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और ‘मरने’ का।
उसी को #देख कर जीते हैं जिस “काफ़िर” पे दम निकले।।
गैर ले #महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्ना-ऐ-लब ‘पैगाम’ के
खत लिखेंगे_गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
इश्क़ ने “ग़ालिब” #निकम्मा कर दिया
वरना_हम भी आदमी थे काम के
हजारों “ख्वाहिशें” ऐसी की हर #ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी #कम निकले
आए है ‘बेकसीए’ इश्क़ पे रोना ग़ालिब
किसके घर जाएगा #सेलाब-ए-बला मेरे बाद
चाहें #ख़ाक में मिला भी दे किसी याद सा भुला भी दे,
‘महकेंगे’ हसरतों के नक़्श_हो हो कर #पाएमाल भी !!
चंद #तस्वीर-ए-बुताँ चंद हसीनों के ख़ुतूत,
बाद मरने के मेरे घर से ये #सामान निकला।
*आतिश -ऐ -दोज़ख* में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ऐ -गम है #निहानी और है
मैं उन्हें_छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो में #पिए होते
क़हर हो या #भला हो, जो कुछ हो
काश के_तुम मेरे लिए होते
मेरी किस्मत में #ग़म गर इतना था
#दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर #ग़ालिब
कोई “दिन” और भी जिए होते
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