Mir Taqi Mir Shayari: मीर मुहम्मद तकी मीर इन को कौन नहीं जानता। आप भी इनके बारे में कुछ नहीं जानते तो में आपको बता दू की 18 वीं शताब्दी के मुगल भारत के उर्दू कवि थे,
मीर मुहम्मद तकी मीर (फरवरी 1725 – 20 सितंबर 1810), जिसे मीर तकी मीर या मीर तकी मीर के नाम से भी जाना जाता है, ये उन अग्रदूतों में से एक थे जिन्होंने खुद उर्दू भाषा को आकार दिया। वह उर्दू ग़ज़ल के दिल्ली स्कूल के प्रमुख कवियों में से एक थे और उन्हें अक्सर उर्दू भाषा के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक के रूप में याद किया जाता है।
उसका तखल्लुस (कलम नाम) मीर था। उन्होंने अपने जीवन का अंतिम भाग लखनऊ में आसफ-उद-दौला के दरबार में बिताया। तो कुछ उनके द्वारा लिखी गयी शायरी या ग़ज़ल हमने अपने इस पोस्ट में लिखी है जो की आपको बहुत पसंद आएँगी।
Mir Taqi Mir Shayari
बेहोशी सी आती है तुझे उस की ‘गली’ में,गर हो सके ए_मीर तो उस राह न जा तू।
![]() |
Mir Taqi Mir Shayari |
मअरका गर्म तो हो लेने दो #ख़ूँ-रेज़ी कापहले “शमशीर” के नीचे हमीं जा बैठेंगे
#गूँध के गोया पत्ती गुल की वो ”तरकीब” बनाई हैरंग ‘बदन’ का तब देखो जब चोली भीगे पसीने में
अब कर के #फरामोश तो नौशाद करोगेपर ‘हम’ जो न होंगे तो बहुत_याद करोगे
![]() |
Mir Taqi Mir Shayari In Hindi |
#सिरहाने मीर के कोई ना बोलोअभी तक रोते_रोते सो गया है
चाह का #दावा सब करते हैं मानें क्यूँकर बे-आसारअश्क की #सुर्ख़ी मुँह की ज़र्दी “इश्क़” की कुछ तो अलामत हो
मुझको_शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।दर्दों-ग़म ‘जमा’ किये कितने तो #दीवान किया।।
#बाहम हुआ करे हैं #दिन रात नीचे ऊपरवो नर्म शाने लौंडे हैं “मखमली” दो ख्वाबा
पत्ता-पत्ता बूटा बूटा हाल #हमारा जाने है,जाने न जाने ”गुल” ही न जाने बाग़ तो #सारा जाने है।
सरापा आरज़ू होने ने #बंदा कर दिया हम कोवगर्ना हम ख़ुदा थे गर #दिल-ए-बे-मुद्दआ होते
इक हूक सी #दिल में होती है इक दर्द जिगर में होता है,में रातों उठ – उठ रोता हूँ, जब सारा_आलम सोता है।
Meer Taqi Meer Shayari
![]() |
Meer Taqi Meer Shayari |
#पैमाना कहे है कोई मयखाना कहे हैदुनिये तेरी आँखों को_भी क्या क्या ना कहे है
क्या क्या_फ़ितने सर पर उसके लाता है ”माशूक़” अपनाजिस बेदिल #बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने हैआशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी_उठता है देखे उसेयार के आ जाने को #यकायक उम्र दो बारा जाने है
कौन_लेता था नाम मजनूँ काजब कि #अहद-ए-जुनूँ हमारा था
गूँध के गोया_पत्ती गुल की वो तरकीब बनाई हैरंग बदन का तब देखो जब चोली #भीगे पसीने में
मिरे सलीके से, मेरी निभी #मुहब्बत मेंतमाम_उम्र, मैं नाकामियों से काम लिया
उम्र_गुज़री दवाएँ करते ‘मीर’दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा_हनूज़
अहद-ए-जवानी रो रो काटा #पीरी में लीं आँखें मूँदयानी #रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया
क्या_कहूँ तुमसे मैं क्या है इश्क़जान का रोग है ‘बला’ है इश्क़।
अमीर-ज़ादों से #दिल्ली के मत मिला कर #मीर,कि हम “ग़रीब” हुए हैं इन्हीं की दौलत से।
मीर “साहब” तुम फरिश्ता हो तो होआदमी होना #मुश्किल है मियाँ
#आंखों में ही रहे हो ‘दिल’ से नहीं गए हो,हैरान हूं ये_शोख़ी, आई तुम्हें कहां से।
#बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,देर से इन्तेजार है अपना #रोते फिरते हैं सारी सारी रात,अब यही #रोज़गार है अपना।
इक़रार में कहाँ है “इंकार” की सी सूरतहोता है शौक़_ग़ालिब उस की नहीं नहीं पर
अपने तड़पने की मैं #तदबीर पहले कर लूँ,तब फ़िक्र मैं करूँगा ‘ज़ख़्मों’ को भी रफू का।
दे के #दिल हम जो हो गए मजबूरइस में क्या #इख़्तियार है अपना
अब तो _लते हैं बुतकदे से ऐ मीर,फिर मिलेंगे गर #खुदा लाया।
किन नींदों अब तू सोती है ऐ #चश्म-ए-गिर्या-नाकमिज़्गाँ तो खोल शहर को “सैलाब” ले गया
जिन_जिन को था ये “इश्क़” का आज़ार मर गएअक्सर_हमारे साथ के बीमार मर गए
आए हो घर से उठ कर मेरे ”मकाँ” के ऊपरकी तुम ने #मेहरबानी बे-ख़ानुमाँ के ऊपर
![]() |
Meer Shayari
|
न हुआ_पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।जौक़ ”यारों” ने बहुत ज़ोर #ग़ज़ल में मारा।।
अश्क ”आंखो” में कब नहीं आतालहू आता है जब_नहीं आता।होश जाता नहीं रहा लेकिनजब वो आता है “तब” नहीं आता।दिल से #रुखसत हुई कोई ख्वाहिशगिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।इश्क का “हौसला” है शर्त वरनाबात का किस को #ढब नहीं आता।जी में क्या-क्या है अपने ऐ #हमदमहर “सुखन” ता बा-लब नहीं आता।
किसू से #दिल नहीं मिलता है या_रबहुआ था किस #घड़ी उन से जुदा मै।
दिल की #वीरानी का क्या मज़कूर हैये नगर सौ मर्तबा_लूटा गया